चाहत के अब इफ़शा-कुन-ए-असरार तो हम हैं क्यूँ दिल से झगड़ते हो गुनहगार तो हम हैं रू आईने को देते हो बर-अक्स हमारे आईना रखो तालिब-ए-दीदार तो हम हैं गुलशन में अजब जाते हो कर हुस्न की तज़ईन इस जिंस-ए-दिल-आरा के ख़रीदार तो हम हैं क्या कब्क को दिखलाते हो अंदाज़-ए-ख़िराम आह हसरत-ज़दा-ए-शोख़ी-ए-रफ़्तार तो हम हैं की चश्म सू-ए-नर्गिस-ए-बीमार तो फिर क्या इस ऐन इनायत के सज़ा-वार तो हम हैं दिल दे के दिल-आज़ार को क्या शिकवा-ए-बेदाद गर सोचिए अपने लिए आज़ार तो हम हैं जिस दिन से फँसे देखी न फिर शक्ल-ए-रिहाई क्या कहिए 'नज़ीर' ऐसे गिरफ़्तार तो हम हैं