चाहे हमारा ज़िक्र किसी भी ज़बाँ में हो कुछ हसरतों की बात भी रस्म-ए-बयाँ में हो आए तो इस वक़ार से अब के अज़ाब-ए-हिज्र शर्मिंदा ये बहार भी अब के ख़िज़ाँ में हो रक्खा है ज़िंदगी को भी हर हाल में अज़ीज़ जब कि अज़ाब-ए-ज़ीस्त भी अपने गुमाँ में हो निकलूँ तिरी तलाश में जब आसमान पर सदमा मिरे ख़याल को दोनों जहाँ में हो रस्म-ए-जुनूँ का बाब है अव्वल ओ आख़िरी लिक्खा निसाब-ए-दिल तो किसी भी ज़बाँ में हो ये तेरा हुस्न-ए-ज़न था कि दिल काम आ गया वर्ना तो इस का ज़िक्र भी कार-ए-ज़ियाँ में हो कुछ लोग थे सफ़र में मगर हम-ज़बाँ न थे है लुत्फ़ गुफ़्तुगू का जो अपनी ज़बाँ में हो बैठा हूँ दूर साए से इस वास्ते 'सईद' आसूदगी सफ़र की उसी इम्तिहाँ में हो