चाहिए परहेज़-ए-गर्दिश चश्म-ए-शोख़-ए-यार को घूमने से जब ज़ियाँ है मर्दुम-ए-बीमार को हूँ मरीज़-ए-इश्क़ है ये दर्द मेरा ला-दवा होगी सेह्हत क्या मसीहा से तिरे बीमार को नावक-ए-बे-पर अगर है उस की मिज़गान-ए-दराज़ क़ौस क्यों समझे न आशिक़ अबरू-ए-ख़मदार को मेरी ही नफ़रत ने की उल्फ़त रक़ीबों से सिवा वस्ल की दौलत मयस्सर क्यों न हो अग़्यार को शाम-ए-ग़ुर्बत हिज्र में तो वस्ल में सुब्ह-ए-वतन देखता हूँ अपने घर में साया-ए-दीवार को क्या क़यामत है दराज़ी-ए-शब-ए-यलदा-ए-हिज्र रोज़-ए-महशर पर जो रक्खा वादा-ए-दीदार को एक दिरहम की इसे ख़्वाहिश तो लाखों की उसे शुक्र मुफ़्लिस से ज़ियादा है कहीं ज़रदार को नक़्द-ए-जाँ दे कर ज़ुलेख़ा ने लिया सौदा-ए-इश्क़ हुस्न-ए-यूसुफ़ की जो देखा गर्मी-ए-बाज़ार को इब्न-ए-आदम से भी छीनी इश्क़ ही ने सल्तनत कर दिया मुहताज इसी ने मालिक-ए-दीनार को इस ज़माने में बड़ी होती है ज़रदारों की क़द्र पूछता है कौन 'आजिज़' मुफ़्लिस-ए-नादार को