चाहो तो मिरा दुख मिरा आज़ार न समझो लेकिन मिरे ख़्वाबों को गुनहगार न समझो आसाँ नहीं इंसाफ़ की ज़ंजीर हिलाना दुनिया को जहाँगीर का दरबार न समझो आँगन के सुकूँ की कोई क़ीमत नहीं होती कहते हो जिसे घर उसे बाज़ार न समझो उजड़े हुए ताक़ों पे जमी गर्द की तह में रू-पोश हैं किस क़िस्म के असरार न समझो एहसास के सौ ज़ख़्म बचा सकते हो 'अख़्तर' इज़हार-ए-मुरव्वत को अगर प्यार न समझो