चाक पर कूज़ा-गर है महव-ए-सुख़न गुल खिले जा रहे हैं दश्त-ओ-दमन हम दरीदा-बदन दरीदा-बदन इक नए ज़ाविए पे नक़्श-ए-कुहन शेर-ओ-शाइ'र हुए हैं शीर-ओ-शकर क्या बहम हो गए ज़मीन-ओ-ज़मन एक हैजान निस्बतों में कहीं एक रेग-ए-रवाँ है दश्त-ए-सुख़न मुझ से क्या पूछती है सैराबी कैसे रहते हैं लोग तिश्ना-दहन तल्ख़ तेज़ाबी तुर्श-तर लहजा उन के माबैन एक शीरीं-दहन हाए दीवार-ए-गिर्या हाए हाए तेरी पेशानी पे हैं कितनी शिकन क्या वहाँ भी बगूले उठते हैं आओ देख आएँ चल के सू-ए-अदन आसमाँ चुप है और ज़मीं ख़ामोश कुछ ख़बर है तुम्हें भी अर्ज़-ए-वतन