चाक पे रक्खे हैं तस्वीर बना दी जाए वर्ना उस जगह से ये मिट्टी हटा दी जाए तुम ने क्या सोच के रक्खा है यहाँ कूज़ा-गरो गर नहीं ढालना तो वज्ह बता दी जाए रंग-ओ-ख़ुशबू तो अज़ल से मिरी कमज़ोरी है सब्ज़ मौसम से मिरी दुनिया सजा दी जाए हो गया कूचा-ए-तोहमत में तो जीना मुश्किल जुर्म की अब तो सज़ा हम को सुना दी जाए आइना-ख़ाने में हैरान से सब बैठे हैं इन ज़मीं-ज़ादों की हैरत ही मिटा दी जाए फ़ैसला पार उतरने का किया है 'शहनाज़' अब ज़रा आख़िरी कश्ती भी जला दी जाए