चाक सीने का ब-अंदाज़-ए-जिगर हो कि न हो और फिर लज़्ज़त-ए-जाँ ज़ौक़-ए-असर हो कि न हो तुझ से ऐ शम्अ' सर-ए-शाम ही रुख़्सत हो लूँ शब बसर हो कि न हो वक़्त-ए-सहर हो कि न हो उम्र-ए-नज़्ज़ारा उसी जल्वे पे क़ुर्बां कर दूँ फिर कभी और मुझे ताब-ए-नज़र हो कि न हो अब जहाँ वो हैं मिरा होश वहीं है ऐ दिल बे-ख़बर मैं हूँ उन्हें इस की ख़बर हो कि न हो अपने महशर की सहर भेज ही दे अब यारब या'नी तन्हा है मिरी रात बसर हो कि न हो इस क़दर पूछ तो लो रू-ए-सहर से 'कैफ़ी' उस पे रंग-ए-असर-ए-दीदा-ए-तर हो कि न हो