चाक-ए-जिगर-ओ-दिल का जब शिकवा बजा होता यूसुफ़ का ज़ुलेख़ा ने दामन तो सिया होता सहता हूँ सितम उस के एहसान है दुनिया पर गर मैं न वफ़ा करता क्या जानिए क्या होता तुम और अदू दोनों इक जान दो क़ालिब हो मैं तुम से अगर मिलता वो क्यूँ कि जुदा होता महरूमी-ए-तालेअ' से होगा न ये दिन वर्ना मैं तुम को दिखा देता गर रोज़-ए-जज़ा होता याँ तर्क-ए-वफ़ा मुश्किल तुम क्यूँ कि सितम छोड़ो जो कुछ न हुआ मुझ से वो आप से क्या होता ऐ काश तुम आ जाते अग़्यार ही को ले कर कुछ उम्र तो घट जाती गो रंज सिवा होता करते हैं वो चार आँखें यूँ मिल के क़यामत में गोया कि है फ़र्दा का अब वा'दा वफ़ा होता धोके में न रहना था यकबार न कहना था कुछ लब पे गिला लाते कुछ दिल में रखा होता होती है शब-ए-वा'दा जब यास तो मैं दिल से नाचार ये कहता हूँ वो आते तो क्या होता मय-ख़ाने से मय 'सालिक' पीते हुए घर जाना बाज़ार है ये हज़रत कुछ पास किया होता