दैर-ओ-का'बा को रहगुज़र समझे दिल को जो कोई तेरा घर समझे अश्क-ए-ख़ूनीं बहे तो हम दिल को हदफ़-ए-नावक-ए-नज़र समझे नाला-ए-ग़ैर आतिश-अफ़्शाँ है शब-ए-वसलत की तुम सहर समझे न उठा अपने आस्ताँ से हमें हम तो बैठे हैं अपना घर समझे नामा दे कर नज़ारा है मंज़ूर हम तक़ाज़ा-ए-नामा-बर समझे ग़ैर से पूछते हैं कूचा-ए-यार ऐसे रहज़न को राहबर समझे वो सितम करने आए हैं ईजाद और हम आह का असर समझे सर्फ़ करना है उंसुर-ए-आबी हम तिरा गिर्या चश्म-ए-तर समझे उस से क्या मुद्दआ कहूँ 'सालिक' सुल्ह की बात को जो शर समझे