चल कर न ज़ुल्फ़-ए-यार को तू ऐ सबा बिगाड़ अंधेर होगा उस से अगर हो गया बिगाड़ आशिक़ को हर तरह है मुसीबत का सामना अच्छा तिरा मिलाप न अच्छा तिरा बिगाड़ मैं क्यूँ करूँ किसी को मकीन-ए-मकान-ए-दिल मैं क्यूँ कहूँ किसी से कि तू घर मिरा बिगाड़ मौक़ूफ़ एक दो पे नहीं यार का इताब इस से जुदा बिगाड़ है उस से जुदा बिगाड़ होती थी आशिक़ों में बड़े लुत्फ़ से बसर बैठे-बिठाए आप ने क्यूँ कर लिया बिगाड़ ऐसे मरीज़-ए-इश्क़ का किस से इलाज हो पैदा करे मिज़ाज में जिस के दवा बिगाड़ नाज़ुक-मिज़ाज यार का बरताव क्या कहूँ दो दिन रहा मिलाप तो बरसों रहा बिगाड़ अच्छों में ऐब भी हो तो दाख़िल हुनर में है रखता है सौ बनाव तिरी ज़ुल्फ़ का बिगाड़ अच्छा हुआ 'जलील' से तुम साफ़ हो गए अग़्यार ने तो डाल दिया था बुरा बिगाड़