चले थे यार बड़े ज़ोम में हवा की तरह पलट के देखा तो बैठे हैं नक़्श-ए-पा की तरह मुझे वफ़ा की तलब है मगर हर इक से नहीं कोई मिले मगर उस यार-ए-बेवफ़ा की तरह मिरे वजूद का सहरा है मुंतज़िर कब से कभी तो आ जरस-ए-ग़ुंचा की सदा की तरह वो अजनबी था तो क्यूँ मुझ से फेर कर आँखें गुज़र गया किसी देरीना आश्ना की तरह कशाँ कशाँ लिए जाती है जानिब-ए-मंज़िल नफ़स की डोर भी ज़ंजीर-ए-बे-सदा की तरह 'फ़राज़' किस के सितम का गिला करें किस से कि बे-नियाज़ हुई ख़ल्क़ भी ख़ुदा की तरह