चलता है आफ़्ताब का दौर उस क़मर के साथ हम ऐब भी जो करते हैं तो इक हुनर के साथ क्यूँकर किसी के रोज़-ए-जज़ा छुप सकेंगे जुर्म ख़ुफ़या-नवीस दो-दो हैं हर इक बशर के साथ रख लेना या ख़ुदा मिरी तर-दामनी की शर्म बादल बरसते आएँ दुआ के असर के साथ इन रोज़ों ख़ानदाँ को कोई पूछता नहीं इज़्ज़त है आदमी की बस अब सीम-ओ-ज़र के साथ हाथों में चाहते हो हिना का जो शोख़-रंग मेहंदी को पीस लो मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर के साथ बाक़ी ख़ुमार रात का अब तक है साक़िया गर्दिश में जाम भी रहे दौरान-ए-सर के साथ फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा का देखना वाइज़ कि रोज़-ए-हश्र जन्नत में हम भी जाएँगे ख़ैरुल-बशर के साथ ख़त दे के नामा-बर को ये कहता है शौक़-ए-दिल अच्छा तो है कि ख़ुद भी चलूँ नामा-बर के साथ बचना दिल-ओ-जिगर का बुतों से मुहाल है तीर-ए-मिज़ा भी चलते हैं तेग़-ए-नज़र के साथ अफ़्सोस अब किसी का कोई क़द्र-दाँ नहीं जौहर-शनास उठ गए अहल-ए-हुनर के साथ करते न हम किसी की इताअ'त कभी 'दिलेर' माशूक़ हम को मिलते अगर ज़ोर-ओ-ज़र के साथ