चमन चमन जो ये सुब्ह-ए-बहार की ज़ौ है तिरे तबस्सुम-ए-रंगीं का एक परतव है ख़िज़ाँ की रात के क़ातिल कहाँ गए देखें कि जो लहू है चराग़-ए-बहार की लौ है चले न साथ ज़माना तो इस को यूँ कहिए ठहर गया है मुसाफ़िर कि जादा-ए-नौ है बुझा है दिल तो न समझो कि बुझ गया ग़म भी कि अब चराग़ के बदले चराग़ की लौ है मिरी ज़मीं पे जबीन-ए-अरक़-अरक़ के सिवा न क़तरा-ए-मय-ए-रंगीं न दाना-ए-जौ है सवाल वक़्त की परछाइयों से हम भी करें हमारे दिल में भी हल्का सा एक परतव है कटे जो तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म तो कैसे 'शमीम' ख़फ़ा ख़फ़ा सी किसी के ख़याल की ज़ौ है