जैसे जी चाहे मिरा हौसला परखा जाए दूर इक दश्त में तन्हा कहीं फेंका जाए तोड़ना और कई बार बनाना मुझ को दोस्तो इतना भी आसान न समझा जाए रक्खा जाए मुझे जन्नत से किसी मंज़र में पाँव के नीचे ही जन्नत को न रक्खा जाए देखने वाले हसीं आँख बहुत देखते हैं जो पस-ए-चश्म है ग़म उस को भी देखा जाए मैं ने कुछ बातें फ़रिश्तों को बतानी हैं अभी अर्श पे आज उसी वक़्त बुलाया जाए आतिश-ए-वक़्त बदल डालेगी चेहरे के नुक़ूश अब मिरे चेहरे पे कुछ और न फेंका जाए उस की तकमील में शामिल है मिरा पूरा वजूद घर की तख़्ती पे मिरा नाम भी लिक्खा जाए इस कहानी का है 'रख़्शंदा' यही लुब्ब-ए-लुबाब पहले इज़्ज़त हो तो फिर बा'द में चाहा जाए