चमन में उस गुल-ए-रा'ना से गुफ़्तुगू तो हुई कहीं की बात सही शरह-ए-आरज़ू तो हुई जहान-ए-इश्क़ में कुछ फ़िक्र-ओ-जुस्तुजू तो हुई उधर भी जज़्बा-ए-बेताब की नुमू तो हुई नज़र के सामने आईना-ए-जमाल रहा नियाज़-ए-इश्क़ की आज इतनी आबरू तो हुई ब-फ़ैज़-ए-सोज़-ए-यक़ीं हम तिरे क़रीब आए तजल्ली-ए-मह-ए-नादीदा रू-ब-रू तो हुई बुतान-ए-अर्श थे दैर-ओ-हरम में अफ़्साना वो हम कि जादा-ओ-मंज़िल की जुस्तुजू तो हुई चमन-चमन हैं तिरे याद के हसीं लम्हे शब-ए-फ़िराक़ भी मानूस-ए-रंग-ओ-बू तो हुई ग़ुरूर-ए-हुस्न बहुत बढ़ गया मगर 'सैफ़ी' रुमूज़-ए-इश्क़ पे जी-भर के गुफ़्तुगू तो हुई