इक जिस्म रंग-रंग ग़ज़ल-ख़्वाँ है आज-कल फिर अक़्ल दिल के ताबे-ए-फ़रमाँ है आज-कल अपनी तरफ़ भी मो'तरिज़-ए-ख़ुद-पसंद देख हम पर तो ख़ैर साया-ए-इस्याँ है आज-कल इक बात जिस को रब्त-ए-मोहब्बत न कह सकें हाथों में अपने दामन-ए-जानाँ है आज-कल उस पैकर-ए-जमाल की क़ुर्बत से मिल गई वो इक ख़लिश कि दिल की निगहबाँ है आज-कल फ़तवा दिया है मुफ़्ती-ए-शोरिश-नज़ाद ने 'सैफ़ी' का ज़ह्न कुफ़्र-ब-दामाँ है आज-कल