चमन में अब कोई ऐ दोस्त ज़िंदगी न रही गुलों में रंग बहारों में दिलकशी न रही कहाँ बनाएँ नशेमन क़फ़स से छुटने पर कि अब चमन में कोई ऐसी शाख़ ही न रही ग़म-ए-हयात ने सारा लहू निचोड़ लिया चराग़-ए-ख़ाना-ए-मुफ़्लिस में रौशनी न रही तुम्हारे सामने हर हाल में जिए लेकिन तुम्हारे बाद तमन्ना-ए-ज़िंदगी न रही शराब-ए-नाब है साक़ी भी है मुग़न्नी भी मगर दिलों में तमन्ना-ए-मय-कशी न रही ये कैफ़ियत ही रही उन की महफ़िल-ए-नौ में चराग़ जलते रहे और रौशनी न रही तमाम उम्र गुज़ारी है रह-नवर्दी में जुनून-ए-शौक़ में मंज़िल की याद भी न रही उठ और अश्क-ए-मोहब्बत से कर वुज़ू 'अरमान' सहर क़रीब है तारों में रौशनी न रही