चमन वालों से बर्क़-ए-बे-अमाँ कुछ और कहती है मगर मेरी तो शाख़-ए-आशियाँ कुछ और कहती है नज़र में उस की यूँ तो सब की ही रफ़्तार है लेकिन मिरे क़दमों से गर्द-ए-कारवाँ कुछ और कहती है यहाँ का ज़र्रा ज़र्रा महशर-ए-ग़म है हक़ीक़त में ब-ज़ाहिर रौनक़-ए-बज़्म-ए-जहाँ कुछ और कहती है है उन की ही नज़र आईना-ए-दैर-ओ-हरम लेकिन यहाँ कुछ और कहती है वहाँ कुछ और कहती है किसी दिन साथ छुट जाने का ख़तरा है उसे शायद तिरे ग़म से मेरी उम्र-ए-रवाँ कुछ और कहती है यही तुम को यक़ीं क्यों है कि कोई इल्तिजा होगी सुनो तो मेरी चश्म-ए-ख़ूँ-फिशाँ कुछ और कहती है मुझे अपनी सदाक़त पर भी शक है इस ज़माने में कि दिल कुछ और कहता है ज़बाँ कुछ और कहती है जहाँ में गो नहीं आसार कुछ ऐसे क़यामत के मगर गुमराही-ए-अहल-ए-जहाँ कुछ और कहती है कभी 'कैफ़' इस का लोहा मानते थे लखनऊ वाले मगर अब अहल-ए-देहली की ज़बाँ कुछ और कहती है