कैसे कहूँ कि आख़िरी अपनी उड़ान है इस आसमाँ के बा'द भी इक आसमान है ज़ख़्मों से चूर चूर बदन लब पे जान है ऐसे में हौसलों का मिरे इम्तिहान है अल्लाह-रे ये शहर-ए-निगाराँ ये मेरा दिल कच्चा घड़ा है और नदी में उफान है महलों में हो उदास तो आ जाओ लौट कर मेरा वहीं पे आज भी कच्चा मकान है तू ने दिया जो ज़ख़्म वो भर तो गया मगर दिल पर हमारे आज भी उस का निशान है परचम हमारे अज़्म का अब भी बुलंद है अल्लाह का है शुक्र वही आन-बान है 'तश्ना' तू मुश्किलात से हिम्मत न हारना बे-शक ख़ुदा-ए-पाक बड़ा मेहरबान है