चमके हुए हैं दीवार-ओ-दर रौनक़ है बाज़ारों में कैसे कैसे लोग आए हैं कैसी कैसी कारों में मैं तो उस के सामने बैठा उस का चेहरा पढ़ता था जाने वो क्या ढूँड रहा था अंग्रेज़ी अख़बारों में वो भी दिन थे जब हर छुट्टी तेरे साथ गुज़रती थी आज मगर रक्खा ही क्या है हफ़्तों और इतवारों में जाने किस फ़रहाद का तेशा किस के जिगर को चीर गया ख़ून की धारें देख रहा हूँ पत्थर की दीवारों में जिन लोगों के अक़्ल-ओ-हुनर की धूम मची थी आलम में उन को भी देखा है रुस्वा शाहों के दरबारों में फूल से चेहरे शाख़ सी बाँहें जब गलियों में मिलती हैं कौन भला फिर सैर को जाए हरे-भरे गुलज़ारों में तो मेरी मा'सूम नज़र को बुल-हवसी का दोश न दे मैं तो ख़ुद को देख रहा हूँ तेरे हसीं रुख़्सारों में आओ उन को बाहर ला कर ताज़ा हवा में बिठलाएँ लोग छुपे बैठे हैं कब से अपनी ज़ात के ग़ारों में अब के तो 'बेताब' मुरी में कुछ कुछ आग बरसती थी जलते सहरा आ निकले थे भीगे हुए कोहसारों में