चाँद डूबा तो ये सज़ा पाई बात करने लगी है तन्हाई कार-ज़ार-ए-हयात में अक्सर हम को अपनों ने दी है रुस्वाई फिर मिले भी तो अजनबी की तरह काम आई नहीं शनासाई है कहाँ किश्त-ए-कुफ़्र दश्त-ए-ख़याल दूर तक मैं हूँ और तन्हाई एक मेहवर पे आ नहीं सकते वो दर-ए-शौक़ और जबीं-साई ख़ार से गुल जुदा नहीं होते बात हम ने उन्हें ये समझाई ज़ीनत-ए-दार हम बने लेकिन आप लाए हैं ये क़ज़ा लाई यूँ भी होता है बारहा 'मंज़र' नींद आई मगर नहीं आई