पंजा-ए-ज़ीस्त में फँसा पंछी फड़फड़ाते हुए मरा पंछी पर निकलते ही इक उड़ान भरी और फिर ख़्वाब हो गया पंछी ना-तवाँ है अभी वजूद तिरा फिर मुख़ालिफ़ भी है हवा पंछी फिर पलट कर कभी नहीं आया क़ैद से हो गया रिहा पंछी जा दुआएँ हैं तेरे साथ मिरी अब मुहाफ़िज़ तिरा ख़ुदा पंछी जाने कब जिस्म का क़फ़स टूटे और उड़ जाए रूह का पंछी