चाँद के रुख़ पे जो ज़ख़्मों का न ग़ाज़ा होता फिर तो वो चाँद न होता कोई शीशा होता कम से कम लोग तो रुक कर ज़रा पढ़ते मुझ को काश मैं भी किसी दीवार का कतबा होता जिस तरफ़ देखिए पत्थर ही से चेहरे हैं यहाँ फूल से लब न सही फूल सा लहजा होता जाने किन सहमे हुए ख़्वाबों का बनता मदफ़न अपने इस दौर में गर मैं कोई नग़्मा होता बस यही एक ख़लिश दिल में सिसकती है सदा तू मिरा जिस्म कभी मैं तिरा साया होता इतनी तस्वीरें सजा रक्खी हैं तू ने दिल में तेरे एल्बम में मिरा भी कोई चेहरा होता यूँ सितारे न कभी शाम से चीख़ा करते सीना-ए-शब में अगर सुब्ह का नक़्शा होता शहर में कितने सफ़ीरन-ए-जुनूँ आए हैं इन के ए'ज़ाज़ में 'अतहर' कोई जल्सा होता