दूर तक रेंगते क़दमों के निशाँ पाए हैं जब कभी अपने तआ'क़ुब में निकल आए हैं ज़िंदगी अपनी कशाकश ही में घिर कर उभरी होंगे वो और जो हालात से घबराए हैं क्या रहे याद भला यूरिश-ए-अफ़्कार में अब कितने पत्थर ग़म-ए-अय्याम ने बरसाए हैं हम ने हर ज़र्रा को बख़्शी है तबस्सुम की ज़िया हम ही फिर नंग-ए-वफ़ा दहर में कहलाए हैं ज़िंदगी आ कभी मुड़ कर ज़रा देखें तो सही कितने ज़ख़्मों के क़दम राह में छोड़ आए हैं अक्स ही अक्स हैं चेहरों के निशाँ तक भी नहीं हाए किस शहर में हम लोग निकल आए हैं कितना पुर-हौल है ये दश्त-ए-वफ़ा भी 'अतहर' बारहा अपनी ही आवाज़ से थर्राए हैं