चंद लम्हों के लिए अंजुमन-आराई थी फिर वही मैं था वही रात की तन्हाई थी चढ़ते सूरज की तवज्जोह रही सारी उस पार रौशनी की तो उधर सिर्फ़ झलक आई थी अपने दिल में भी थी ता'मीर-ए-मकाँ की हसरत अपनी क़िस्मत में मगर बादिया-पैमाई थी अपने ही बोझ से हर डूबने वाला डूबा वर्ना तूफ़ान से कश्ती तो निकल आई थी चल दिए बस यूँही इक साए के पीछे न तआ'रुफ़ ही था उस से न शनासाई थी कौन इस दश्त में कहता मुझे 'मोहसिन' लब्बैक अपनी ही ख़ाक-ए-नवा गूँज के लौट आई थी