चंद मख़्सूस अनासिर से चमन बनता है कितनी तरकीब से फूलों सा बदन बनता है तिरे होंटों का तबस्सुम तिरे रुख़्सार का रंग कभी जल्वा कभी वहशत कभी फ़न बनता है फेंक देता है जो इंसान ब-ज़ो'म-ए-हस्ती बाद मरने के वही पर्दा कफ़न बनता है गर्दिश-ए-वक़्त को सहने का सलीक़ा इक दिन इंक़लाब आने पे जीने का चलन बनता है थोड़ी मिट्टी से वफ़ा फ़र्ज़ का पास अम्न की चाह इन ही जज़्बों को मिलाने से वतन बनता है