चाँद मेरे घर में उतरा था कहीं डूबा न था ऐ मिरे सूरज अभी आना तिरा अच्छा न था मैं ने सुन ली थी तिरे क़दमों की आहट दूर से तू न आएगा कभी दिल में मिरे धड़का न था मैं ने देखा था सर-ए-आईना इक पैकर का अक्स हू-ब-हू हम-शकल था मेरा मगर मुझ सा न था क्यूँ झुलस डाला है उस ने मेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल को वक़्त इक दरिया था लेकिन आग का दरिया न था बंद पानी के भँवर में खो गई कश्ती मिरी आँख जल-थल थी मगर आँसू कोई टपका न था मैं न दामान-ए-चराग़-ए-बे-नवा बन कर जला थी तलब झोंके की मुझ को और तू झोंका न था घूम कर देखा तो था जिस राह पर तन्हा रवाँ भीड़ इतनी थी कि चलने को वहाँ रस्ता न था मैं कि वुसअ'त की तमन्ना में बगूला बन गया रेत के ज़र्रे थे दामन में मिरे सहरा न था काहिश-ए-सोज़-ओ-ज़ियाँ ने राख कर डाला मुझे मैं ने समझा था कि ये शो'ला यहाँ जलता न था मेरे सहरा की तपिश को देख कर हैराँ न था अब्र घिर कर बारहा आया मगर बरसा न था अपने बच्चों का तबस्सुम देख कर 'आरिफ़' बता घर की वीरानी का तुझ को शिकवा-ए-बेजा न था