चाँदनी से भी जल रहे हैं लोग लम्हा लम्हा पिघल रहे हैं लोग जाने क्या बात है कि मक़्तल से मुँह छुपाए निकल रहे हैं लोग कैसे पहचानूँ आश्नाओं को अपना चेहरा बदल रहे हैं लोग माँगते हैं क़दम पुरानी ज़मीं कैसे पानी पे चल रहे हैं लोग हम तो बर्बाद हैं मुरव्वत में और सब फूल फल रहे हैं लोग है ये तस्लीम हम हैं नज़्म-ए-जदीद मेरे पुरखे ग़ज़ल रहे हैं लोग है ये 'जावेद' आज रस्म-ए-जहाँ मुँह से शो'ले उगल रहे हैं लोग