चराग़ जलते नहीं हैं जलाए जाते हैं ये अश्क बहते नहीं हैं बहाए जाते हैं जब उन की बज़्म में पहुँचे तो ये हुआ मा'लूम यहाँ चराग़ नहीं दिल जलाए जाते हैं ख़िज़ाँ के ख़ौफ़ से लुत्फ़-ए-बहार क्यों छोड़ें यही तो सोच के गुल मुस्कुराए जाते हैं शब-ए-फ़िराक़ की बे-ताबियाँ न पूछ हमें कुछ ऐसे ज़ख़्म हैं जो दिल को खाए जाते हैं समाँ अब आ गया सोने का ग़ालिबन 'ख़ुर्शीद' चराग़ शाम के घर घर बुझाए जाते हैं