चराग़ बुझ भी चुका रौशनी नहीं जाती वो साथ साथ है और बेकली नहीं जाती शबाब-ए-रफ़्ता फिर आता नहीं जवानी पर ये वो मकाँ है कि जिस को गली नहीं जाती अजीब दर-बदरी में गुज़र रही है हयात कि अपने घर में भी अब बे-घरी नहीं जाती चमन को चारों तरफ़ घेर कर नहीं रखना सबा गुलों की तरफ़ कब छुपी नहीं जाती चलो उसी से करें बात चारागर तो है वो जिस से बात किसी की सुनी नहीं जाती मता-ए-दर्द नुमू के सफ़र में है शामिल कली बहार में वैसे जली नहीं जाती फ़िशार-ए-वक़्त में नोक-ए-क़लम हुई लर्ज़ां लहू के शोर में दिल की कही नहीं जाती तमाम शहर रऊनत की गर्द में मलफ़ूफ़ और एक हम हैं कि वारफ़्तगी नहीं जाती