चराग़ सब्र के जिस ने जलाए रोया है हवा से रब्त-ओ-तअ'ल्लुक़ बढ़ाए रोया है सुलगते ख़्वाबों की ता'बीर की बनावट में जो अपनी आँखें मुसलसल जगाए रोया है यही नहीं कि परिंदे लहू बहाते हैं उदास तन्हा शजर भी तो हाए रोया है समझ लो पानी से निस्बत उसे रही होगी जो कैनवस पे समुंदर बनाए रोया है मैं जानती हूँ वो इक शख़्स वस्ल का मारा पराए हिज्र का जो रंज उठाए रोया है