चराग़-ए-ख़्वाब-ए-शिकस्ता की लौ है मद्धम देख कभी तो आ मिरी तन्हाइयों का आलम देख जवाज़ ढूँड रही हैं कई निगाहें यहाँ ये तेरी मर्ज़ी है तू चाहे मुझ को कम-कम देख हमारे शहर में सच्चाइयाँ मुक़य्यद हैं यक़ीं न आए तो चल आइनों का मातम देख अभी ठहर ऐ जनाज़ा पढ़ाने वाले शख़्स बदन के मलबे के नीचे दबे हुए ग़म देख यहाँ भी मसअला बैअ'त का ही रहा होगा लहू में डूबे हुए हैं हज़ारों परचम देख यहाँ के लोगों से उम्मीद रख वफ़ाओं की यहाँ इक अर्से से बदले नहीं हैं मौसम देख कभी भुला तो दिया था उसे मगर 'आफ़ाक़' पलक झपकते ही क्यूँ आँख हो गई नम देख