तिरे ख़याल से आँखें मिलाने वाली हूँ नए सरूप का जादू जगाने वाली हूँ मैं सैंत सैंत के रक्खे हुए लिहाफ़ों से तुम्हारे लम्स की गर्मी चुराने वाली हूँ उसे जो धूप लिए दिल के गाँव में उतरा रहट से चाह का पानी पिलाने वाली हूँ कहो कि छाँव मिरी ख़ुद समेट ले आ कर मैं अब घटा का परांदा हिलाने वाली हूँ जहाँ पे आम की गुठली दबी थी भूबल में वहीं पे अपने दुखों को तपाने वाली हूँ इस अलगनी पे अकेले लरज़ते क़तरे को बना के 'नैनाँ' मैं सुर्मा लगाने वाली हूँ