चराग़-ए-सुब्ह जला कोई ना-शनासी में इक और दिन का इज़ाफ़ा हुआ उदासी में तिरी नज़र के इशारों पे आइना न हुआ ये दिल की ताक़ बहुत था सुख़न-शनासी में दिखाई दे न मुझे दहशत-ए-जमाल के साथ नशात-ए-इश्क़ न खो जाए बद-हवासी में जुनूँ रहीन-ए-क़बा हो तो इस से पूछूँ भी के कितना लुत्फ़ मयस्सर था बे-लिबासी में न रोज़-ए-अब्र-ए-सियह था न माहताब की रात गिलास टूट गया कैसी बद-हवासी में