चारों जानिब मौसम-ए-गुल है पागल यादें तन्हाई मन सागर में जाग उठी हैं गुज़री रातें तन्हाई मैं सोचों की झील किनारे आस जज़ीरे देख रही हूँ सरकश मौजें हर्फ़ घरौंदे मेरी ग़ज़लें तन्हाई तू उतरे ज़ख़्मी सूरज की किरनों को तस्वीर करे मैं लफ़्ज़ों में बाँध रही हूँ सारी शामें तन्हाई दस्त-ए-सबा ने फिर से मेरे दामन में महका दी हैं चटकी कलियाँ भीनी ख़ुशबू तेरी बातें तन्हाई अब भी तेरी यादों में मिस्ल-ए-चराग़ाँ रौशन रौशन साथ निभाने की वो तेरी सारी क़स्में तन्हाई शायद 'फ़र्रुख़' इन चिड़ियों की क़िस्मत में ही लिखा है बूढ़ा बरगद ढलते साए फैली शाख़ें तन्हाई