चश्म-ए-ग़ज़ब जो उन की करम में बदल गई आई हुई हर एक बला ख़ुद ही टल गई तेरा करम नहीं है तो फिर और क्या है ये लाखों की बात कट के मिरी बात चल गई दारू-ए-चारागर न हुई कारगर मगर दीदार-ए-यार ही से तबीअत सँभल गई उम्मीद-ए-इल्तिफ़ात में हर दिन गुज़र गया तकमील-ए-इंतिज़ार में हर रात ढल गई पा-बोसियों की मुझ को सज़ा तुम ने दी मगर क्या कर लिया सबा का जो हर शय मसल गई तू ने बुलंद मुझ को किया जब जहान में दुनिया हसद की आग में इक लख़्त जल गई 'ख़ाकी' वो दो-घड़ी की ख़ुशी ले के क्या करे मौज-ए-सबा की तरह जो दिल से निकल गई