चाँद निकला है रात आई है तुम भी आओ तो क्या बुराई है आँख साक़ी ने फिर मिलाई है फिर से तौबा की मौत आई है होश आने लगा है फिर मुझ को चश्म-ए-मय-गूँ तिरी दुहाई है ज़ाहिदों ने भी आज मय पी ली क्यूँकि काली घटा जो छाई है इश्क़-ए-सादिक़ ने जान दे दे कर हुस्न की ज़िंदगी बढ़ाई है ज़र्रे ज़र्रे में हुस्न है लेकिन इश्क़ की चार-सू ख़ुदाई है दिल में जब तक है बात अपनी है मुँह से निकली तो फिर पराई है जान ले जाओ ग़म न ले जाओ उम्र भर की यही कमाई है ख़ुद से 'ख़ाकी' न तेरे पास आया ख़्वाहिश-ए-दीद खींच लाई है