चश्म ओ लब कैसे हों रुख़्सार हों कैसे तेरे हम ख़यालों में बनाते रहे नक़्शे तेरे तेरे सावंत को सूली की ज़बाँ चाट गई जिस्म अभी गर्म था और बाल थे गीले तेरे क्या कहूँ क्या तिरे अफ़्सुर्दा दिलों पर गुज़री कैसे ताराज हुए आईना-ख़ाने तेरे अब कहाँ देखने वालों को यक़ीं आएगा बाग़-ए-जन्नत था बदन ख़्वाब थे बोसे तेरे