ये बहार-ओ-ख़िज़ाँ के अफ़्साने By Ghazal << चश्म ओ लब कैसे हों रुख़्स... शहर की रस्म है पुरानी वही >> ये बहार-ओ-ख़िज़ाँ के अफ़्साने लोग भी किस क़दर हैं दीवाने कौन सी मंज़िल-ए-हयात है ये दिल फ़सुर्दा ख़मोश मयख़ाने आप तो सोचते रहे लेकिन जल मुझे मुस्कुरा के परवाने हैं यही वक़्त की मता-ए-अज़ीज़ चंद आज़ुर्दा क़ल्ब दीवाने Share on: