चश्म-ओ-दिल साहब-ए-गुफ़्तार हुए जाते हैं रास्ते अक़्ल को दुश्वार हुए जाते हैं हिज्र-ए-देरीना से अब ख़ुश थे बहुत मैं और वो अब मगर फ़ासले बेज़ार हुए जाते हैं वो निगाहें हैं मुग़न्नी की थिरकती पोरें साज़ सोए हुए बेदार हुए जाते हैं शेर-गोई तिरा मंसब तो नहीं तिफ़्ल-ए-सुख़न हाँ मगर हिज्र में दो चार हुए जाते हैं निस्बत-ए-अबजद-ए-किरदार न थी जिन को 'नईम' साहब-ए-अज़्मत-ए-किरदार हुए जाते हैं