चटानों की तरह हैं हम मगर टूटे हुए भी हैं यहाँ हर पल बिखरने का हमें अंदेशा रहता है कभी बातिल भगा कर हक़ को ले जाता है बस्ती से कभी हक़ भेस में बातिल के आ कर मुँह चिढ़ाता है कभी अंदेशा-ए-बातिल हमें सोने नहीं देता कभी हक़ नीम-शब दरवाज़ा आ कर खटखटाता है फ़ज़ाएँ एक मुद्दत से अज़ानों को तरसती हैं यहाँ हर शख़्स हर्फ़-ए-हक़ फ़क़त कानों में कहता है कहीं ख़ुद को किसी शय की तरह मैं भूल आया हूँ यहाँ रहते हुए मुझ को तो कुछ ऐसा ही लगता है हवाओं के अलावा कौन आएगा हमारे घर न जाने किस की ख़ातिर ये दिया अब झिलमिलाता है