चेहरे पे मेरे अब वो रऊनत नहीं रही आईना देखने की ज़रूरत नहीं रही क़ाबू में फिर हमारी इबादत नहीं रही विर्से में जो मिली थी इमारत नहीं रही सद शुक्र अपने पाँव पे चलने लगा हूँ मैं बैसाखियों की मुझ को ज़रूरत नहीं रही जीवन है जैसे धूप में दीमक-ज़दा किताब जिस के वरक़ उलटने की हिम्मत नहीं रही इल्म-ओ-हुनर सदाक़त-ओ-मेहर-ओ-वफ़ा ख़ुलूस बाज़ार में किसी की भी क़ीमत नहीं रही सोता हूँ आँखें मूँद के भीगी ज़मीन पर अच्छा है मेरे सर पे कोई छत नहीं रही कासा-ब-दस्त घूम रही हैं शराफ़तें अब उन को मुँह छुपाने की हाजत नहीं रही सच बोलना तपाक से मिलना हर एक से जज़्बे ये वो हैं जिन में हरारत नहीं रही काई की इक चटान पे ठहरा हुआ हूँ मैं पैरों को अब फिसलने की आदत नहीं रही