ख़्वाब-गर ख़्वाब बनाता ही चला जाता है जिस को जो आए समझ उस को उठा लाता है रात बुझती है तो जाग उठते हैं वहशी मंज़र दिन उजड़ता है तो दिल ख़ौफ़ पे उकसाता है तू ने जलते हुए मंज़र को हवा क्यूँ दी थी राख अब उड़ने लगी है तू किधर जाता है ये तिरे सोचे हुए रंग का मुहताज नहीं हुस्न तो हुस्न है हर रंग में इतराता है देखने वाले मोहब्बत की नज़र से देखें मैं वो मंज़र हूँ जिसे हुस्न-ए-नज़र भाता है ऐ मोअल्लिम की तरह इश्क़ पढ़ाने वाले इश्क़ लेक्चर से नहीं कर के समझ आता है एक मुश्ताक़-निगाही की तलब में 'शाहिद' जिस को देखो वही तस्वीर हुआ जाता है