छा गया सर पे मिरे गर्द का धुँदला बादल अब के सावन भी गया मुझ पे न बरसा बादल सीप बुझते हुए सूरज की तरफ़ देखते हैं कैसी बरसात मिरी जान कहाँ का बादल वो भी दिन थे कि टपकता था छतों से पहरों अब के पल भर भी मुंडेरों पे न ठहरा बादल फ़र्श पर गिर के बिखरता रहा पारे की तरह सब्ज़ बाग़ों में मिरे बा'द न झूला बादल लाख चाहा न मिली प्यार की प्यासी आग़ोश घर की दीवार से सर फोड़ के रोया बादल आज की शब भी जहन्नम में सुलगते ही कटी आज की शब भी तो बोतल से न छलका बादल