बे-नियाज़ियों में है हाल ये अताओं का बट रहा है चीलों में रिज़्क़ फ़ाख़्ताओं का उस का जिस्म भी निकला ज़ख़्म ज़ख़्म मुझ सा ही खुल गया भरम सारा रेशमी क़बाओं का अपनी चार दीवारी से न जा सकें बाहर हाल ये हुआ अपनी बे-असर दुआओं का अब घुटन ही बेहतर है अपने आशियानों की ए'तिबार मत करना आतिशी हवाओं का तूर-ए-आगही पर जब आप ही सवाली था क्या जवाब देता मैं अपनी ही सदाओं का