छाँव अफ़्सोस दाइमी न रही धूप का क्या रही रही न रही आसरा छिन गया है जीने का आस थी जो रही-सही न रही हो गया ख़्वाब फूल सा चेहरा शाख़-ए-दिल भी हरी-भरी न रही बह गए आँसुओं के दरिया में आप की बात याद ही न रही इक उदासी थी रात थी हम थे और फिर हाजत-ए-ख़ुशी न रही मशवरा जस का तस रहा लेकिन मश्वरों की कभी कमी न रही वाक़िआ जो हुआ हुआ लेकिन दास्ताँ आप से जुड़ी न रही उन इलाक़ों में क्या रहा साहिब जिन इलाक़ों में शायरी न रही इक तमन्ना थी तेरी महफ़िल में क्यूँ रहें हम अगर वही न रही