छेड़ते हैं गुदगुदाते हैं फिर अरमाँ आज-कल झूटे सच्चे कोई कर ले अहद-ओ-पैमाँ आज-कल घोंट दे मेरा गला कुछ ज़ोर अगर उस का चले हाथ से मेरे ही तंग इतना गरेबाँ आज-कल चढ़ गए दीवार-ए-ज़िंदाँ पर कभी उतरे कभी हम बने हैं साया-ए-दीवार-ए-ज़िन्दाँ आज-कल रोज़ रातों को सुना करता हूँ ये आवाज़-ए-क़ैस फाड़े खाता है मुझे ख़ाली बयाबाँ आज-कल ऐ उरूस-ए-तेग़ कुछ तुझ को हया भी चाहिए क्यूँ गले पड़ती है तू हो हो के उर्यां आज-कल संग-दिल काफ़िर का शायद टूटते देखा है कुफ़्र टूट कर मिलते हैं मुझ से इस के दरबाँ आज-कल आ गया ऐसा ही अब काफ़िर ज़माना क्या करें दाबे फिरते हैं बग़ल में लोग ईमाँ आज-कल रात-दिन है मेरी तुर्बत पर हसीनों का हुजूम देखने की चीज़ है गोर-ए-ग़रीबाँ आज-कल दिन को रोज़ा ईद शब को है अजब शग़्ल-ए-'रियाज़' रात-भर पीता है ये मर्द-ए-मुसलमाँ आज-कल