छोड़ जाने की वो जुरअत भी नहीं कर सकता बूढ़ी रस्मों से बग़ावत भी नहीं कर सकता तू मिरी जाँ है मगर है तो तवाइफ़ ही नाँ मैं तिरी खुल के हिमायत भी नहीं कर सकता वो जिसे पूजते इक उम्र गुज़ारी हम ने क्या वो इक बार इनायत भी नहीं कर सकता दिल जो बच्चा था बहुत शोख़ तिरे जाने पर ऐसे सहमा है शरारत भी नहीं कर सकता इश्क़ करने का मुझे कहती है समझाओ उसे मुझ सा मज़दूर मोहब्बत भी नहीं कर सकता मेरी मय्यत पे कहाँ वक़्त से वो पहुँचेगा जो कि बर-वक़्त अयादत भी नहीं कर सकता आख़िरी उम्र में मफ़्लूज हुआ बाप हूँ मैं अपने बच्चों को नसीहत भी नहीं कर सकता