छोड़ती ही नहीं मुझ को शब-ए-फ़ुर्क़त मेरी ऐ में क़ुर्बान उसे इतनी मोहब्बत मेरी क्यूँ कर ऊपर उठें आँखें मिरी ऐ हसरत-ए-दीद सर उठाने नहीं देती है नदामत मेरी फूट कर रोने से अश्कों का मरा है पानी बे-बहार आए खुली जाती है तुर्बत मेरी वस्ल की शब वो डराते हैं ये कह कह के मुझे तुम सताओ तुम्हें कोसेगी नज़ाकत मेरी जल्वा-ए-यार ने बेहोश किया है मुझ को कुछ अलग नश्शा-ए-मय से रही ग़फ़लत मेरी आँख तारों ने चुराई ये नई बात है आज देखिए कटती है क्यूँ कर शब-ए-ग़ुर्बत मेरी रहन-ए-मय होने से बच जाए तो इज़्ज़त रह जाए मोल ले ले कोई दस्तार-ए-फ़ज़ीलत मेरी रहें ता-हश्र यूँही मेहंदी लगे पाँव के नक़्श चार फूलों की न मोहताज हो तुर्बत मेरी तारे मुझ को नज़र आएँ न कहीं हश्र के दिन डर से बढ़ जाए न हद से शब-ए-फ़ुर्क़त मेरी छेड़ कर मज्मा-ए-ज़ुहहाद को डरता हूँ 'रियाज़' कोहना मस्जिद की एवज़ हो न मरम्मत मेरी