हमें सब अहल-ए-हवस ना-पसंद रखते हैं कि हम नवा-ए-मोहब्बत बुलंद रखते हैं इसी लिए तो ख़फ़ा हैं सितम-शिआर कि हम निगाह-ए-नर्म ओ दिल-ए-दर्दमंद रखते हैं अगरचे दिल वही रजअत-पसंद है अपना मगर ज़बान तरक़्क़ी-पसंद रखते हैं हम ऐसे अर्श-नशीनों से वो दरख़्त अच्छे जो आँधियों में भी सर को बुलंद रखते हैं चले हो देखने 'मुश्ताक़' जिन को पिछली रात वो लोग शाम से दरवाज़ा बंद रखते हैं